कामेश्वर पाण्डेय के छत्तीसगढ़ी उपन्यास ‘तुंहर जाए ले गीयां’ 270 पृष्ठ म लिखाय हावय। येखर कहिनी ह छोटे-छोटे 42 खण्ड म बंटाय हावय। हर कहिनी जीवंत आंखी के आगू म घटत दिखथे। बड़े कका मुख्य पात्र ह बहुत संवेदनसील हावय। हरेक के दु:ख-पीरा के एहसास ल करथे। आज के बेरा म जानवर के प्रति परेम ह पाठक ल सोचे बर विवश करही के पसु घलो मनखे सरीख हे। ओला दाना-पानी देना, ओखर जोखा करना अउ माछी झूमत घाव म नीम तेल ल लगाय बर कहना। एक सियान के पीरा के सक्कर के बेमारी काबर होगे हावय? मैं ह भात नई खा सकंव एक छत्तीसगढ़िया सियान के पीरा गहूं रोटी म पेट नई भरय। सुग्घर छत्तीसगढ़ी के सरल भासा म लिखाय उपन्यास पढ़े म रुचि पैदा करथे ये उपन्यास के अंस देवत हन, जेमा पंडित अउ जजमान के गोठबात हावय जेन ह आज के समाज के दरसन कराथे।
रकम-रकम के थैली
लहाराम समान खोली मं चाउर के बोरा ल उलदथे। चढ़ोतरी के चाउर, ओमा ले रंग-रंग के थैली मन निकलिस। छोटे अउ बडे लमरी अउ चाकर, सादा अउ छींट वाला, भांति-भांति के गुप्त दान के पोटली। जजमान मन के चढ़ाए। आदमी के परलोक सुधारे के उपाय।
नान-नान लइकन दउड़त अउ हल्ला करत परछी मं आ पहुंचिन। बताइन, मीनू-अंसू मन आवथे। चुनिया दुआरी कती भागिस। लइका मन के नजर चाउर संग बगरे रंग-बिरंगा थैली मन ऊपर अटक गइस।
बिनौधा दुआरी ले मीनू अउ अंसू बडे क़ाकी ल देखिन त दउड़त आइन अउ ओला एक-एक कती ले पोटार लिहिन। बहुरिया पांव छुइस।
‘एहवांती-पूती रह ओ!’ बड़े काकी अपन अंतस ले असीसिस… ‘ए दारी तो खूब रस्ता देखाया दाई…।’
‘तुंहर नाती-नतनिन के सेती!’ हेम सफाई दिहिस ‘ये मन डांस-पेंटिंग क्लास तो जावत रहिन…।’
रंग-बिरंगा थैली मन मीनू अउ अंसू के धियान ल फट्टे खींचिन। ओमन बड़े काकी के पल्लू ल छोड़ के चाउर के ढेरी म कूद परिन अउ थैली मन ल बीने छांटे लगिन। ओमन के सोर ले के अवइया लइका मन बड़ा हसरत से देखथें। मीनू एक ठन छींट के सुन्दर थैली के सीवन ल खोले लगिस।
‘पहिली बिन-बिन के एक जघा रखत जावा बेटी!’ बड़े काकी मीनू ल कहिस। ‘फेर खोल-खोल के देखिहा…।’
‘इसमें क्या है दीदी?’ अंसू पूछिस। मीनू ओला एक कती ठेल दिहिस अउ थैली ल पोगरिया लिहिस। लरमी बरतही, झपट लिही बदमास हर। दू ठन थैली ल धरेच हे।
‘कई ठन जिनीस होही बेटा!’ बड़े काकी बताइस ‘चाउर, दार, उरीद, मूंग, मसूरी अउ पइसा तक…।’
सुरेन अउ संदीप घलउ मन आ पहुंचिन। मीनू अउ अंसू ‘डैडी!’ कहत ओला फेर जा धरिन।
‘अरे, रुको तो… रुको तो…!’ लइका मन समझगइन, बाप हर अभी दुलारे के मूड मं नइए। ओमन फेर चाउर के ढेरी म जा दतिन। गांव के लइका मन उंकर कौतुक ल मोहाए देख। रंग-बिरंगा थैली मन उकर नजर ल बांधय।
‘तूहूं मन छांटे लगिहा…?’ सुरेन कहिस त ओमन के आंखी ‘दिप’ ले करिस, लेकिन अपन भमर ल दबाइन। जादा उतियाइलो देखाय हर ठीक नइ होही। मिलत मौका हर निकल जाथे। मौका मिले के पूरा भरोसा अभियो नइ ए। देखथस, कइसे गुस्साए बानी देखथें अपन बाबू ल।
‘बहुत थैलियां है बेटे!’ सुरेन मीनू अउ अंसू ल समझाइस ‘खोलते-खोलते दिन बीत जाएगा। मिल-जुल के करो तो जल्दी होगा, जादा मजा आएगा… दार-भात खाना है, नहीं…।’
दार-भात खवाइयो हर कुछू मजा के बात ए। दार-भात तो उन रोज खावथें। मन ले उरठ गए हे। चाउ-मीन, नूडल्स, चाट अउ मिठाई के बात हर कुछु खुसी के होतिस। तभो ले, आखिर डैडी के बात, मानेच बर परिस।
‘त सुरू हो जावा तुहूं मन…!’ सुरेन के हुकुम पात्ते ओमन चाउर के कुड़हा लंग भरदरा गइन। नीरा, नानकन, गाू, निर्मला…। कभू-कभू एके ठन थैली ल दू-दी झन के हाथ म जावथे। लुटालूट मच गे। लहाराम खिसियावथे। खिसियावत रहै। असली मालिक, सुरेन कका तो ओमन के पार हे। कुड़हा के चारों कती छोटे-बड़े, रंग-बिरंगा थैली के मेला लग गइस।
‘अच्छा…’ सुरेन कहिस ‘चला, अब थैली मन ल खोला। सब ले जादा खोलही ओला इनाम…।’
अब ओमन थैली के सीवन उधेड़े म लग गइन। नख, दांत, पिन अउ कांटा तक… जेला जउन मिलिस, भिड़ गइन। अब ओमन ल भरोसा हे। दू-एक ठन थैली जरूर मिलही।
चुनिया हेम भउजी बर पानी टेंड़ के लहुटिस। लइका मन तो भरदराए हें। सुरेन भाई के चोनहा। ओकर मुंह म मुस्कान खेल गइस। पूरा बड़े कका ऊपर गए हे।
सब ले पहिली मीनू के छींट वाला लमरी थैली ह खुलिस अउ ओमा के मूंग हर थोरकन गइस।
‘अही लंग उलद बेटी!’ चुनिया बताइस ओही लंग मीनू थैली ल उलट दिहिस। चुनिया ओला सकेल के एकजाई करिस। ‘सब जिन्स के अलग-अलग कुड़हा बनाहा…।’
‘बच्चे बात-बात में खेलने का बहाना ढूंढ लेते हैं…।’ संदीप परसन्न हो के चुनिया ल देखे लगिस। आदिबासी सुघरई के सांचा म बह्मनिन के सील-सुभाव। दुर्लभ संजोग।
‘और बूढ़े भी…।’ सुरेन हांसत कहिस- ‘हम लोग भी तो हाथ-पांव धोना छोड़ इसी में उलझ रहे हैं।’ फेर लइकन लंग कहिस- ‘अच्छा भाई… हम लोग तो अब चलते हैं, लेकिन याद है न, जो जादा थैलियां खोलेगा इनाम उसका…।’
लइकन अपन कोसिस ल दुगुना कर दिहिन। रकम-रकम के अनाज, राहेर, चना, मसुरी, मटर, तिल-तिलहन… छोटे-छोटे कुड़हा बनथे।
‘अउ कम थैली खोलही ओला कका…?’ नीरा के संसो कर के सुरेन लंग पूछिस।
‘ओहू ल देबो जी!’ सुरेन ओकर छोटकन होए मुंह ल देख के कहिस- ‘इनाम सब ल मिलही, लेकिन जादा खोलही ओला जादा इनाम मिलना चाही न भाई…!’ अउ ओहर संदीप संग मुस्की ढारत कोला कती निकल गइस।
नीरा एक ठन लाल रंग के थैली ल खोलिस। ओमा ले चाउर संग एक ठन सिक्का अउ कपूर के टिकिया निकलिस। सिक्का ल ओहर टप ले ओकर कुड़हा मं डार दिहिस। सिक्का ल जादा देर छुए के कामेच नइ ए। बद्दी लग जाथे। गाू एक ठन नीला रंग के थैली ल खोलिस। ओहर तिल म सिक्का के साथ एक इन छोहारो हबराइस। छोहारा ओकर हाथ ले नई छूटत रहिस। नीरा ओला लूट के सामने अलग से रखिस। ओकर जलन। नइ त का ओकर कुड़हा रहिस। गाू के भाग म एक ठन मिले रहिस। ओहू ओकर देखे नइ करिस।
कई ठन थैली म लाइची दाना, फल्ली दाना अउ फूटे चना तक मिलिस। बड़े काकी सब झन ल एक-एक ठोम्हा खजेना दिहिस। ओकर भाग के चीज हर जातिस कहां? अकलौता छोहारा हर गाूच के पसरा म गिरिस। मीनू अउ निर्मला सबले जादा, लेकिन बराबर संख्या म थैली खोलिन। ओमन इनाम म एक-एक रुपिया सिक्का पाइन। सबे झन छांट-छांट के थैली पाइन। ओमा अपन-अपन खजेना ल भर के कुलकत मानस चौरा कती भागिन।
चाउर के कुड़हा ले बन्नेच कन आलू, भांटा अउ सकरकंद घलऊ निकल आए रहिस। ओला सुरेन मन साग-भाजी लाए रहिन ओही मं जोरवा दिहिस बड़े काकी। अलग-अलग दार के कुड़हो मन ल एके मं मिलवा दिहिस। तभो ले ओहर तीन सौ आदमी बर कम जनाइस। ओमा घर ले एक-एक किलो राहेर अउ उरीद दार अउ मिलवा दिहिस। दार-चाउर के बोरी-टुकनी म पानी ओइच के किरिस्नारपन करे बर नइ चूकिस। बड़े कका ओला देख के मुचमुचाइस। भगवान ल साखी धरे बिना ओकर हाथ ले कुछू निकलथे त ओला दानेच-पुन बना डारथे। आदमी के फल पाए के लोरस। लेकिन ठीक हे। ओकर हाथ ले निकलथे तो। बड़े कका अपन रौ मं आके कइसनहो खरचा कर देथे। उधार ले के अपन ओदारी रे बर नइ चूकै। बड़े काकी ओला कभू नइ रोकै-टोकै। बस अतेक कथे, भलाई ल करा, लेकिन अपनो लइका-परिवार के चेत रहे चाही भाई! बड़े कका कथे, सुने हस गुरू नानकदेव का कहिन, ‘राम जी की चिड़िया राम जी की खेत, चुग लो चिड़िया भर-भर पेट।’ फेर घर-परिवार के कल्यान तो भगवान लंग तैं मनात्ते रथस। ओहर कल्यान करबे करही। लेकिन कल्यान के रस्ता ल बनाबे तभे तो ओहर फुरही। जावा भाई, बड़े काकी कथे, तुंहर गोठ हमर समझ मं नइ आवै।
हालांकि बडेयो कका ल घर परिवार के कम संसो नइ रहै। सोज्झे म बनिहार-भूतिहार मन संग खेतीबाड़ी म जी ल देहे रहै। गरुआ-भंइसा मन बर चेत हर लगे रथे। घरे के बढ़ोतरी बर तो ओहर जजमानी करथे, भगवान- परबचन करथे। अउ कोन हे जजमान? जेमन खाए-अघाए हें, जेमन लंग अकतहा पइसा हे, धन-दौलत हे। ओही मन तो चढ़ोतरी ल चढ़ाथें। दुनिया म अगर खून-पसीना के कीमत रतिस, बनिहार-भूतिहार, गरीब-गुरबा सबे चढ़ातिन। फेर कोई गरीबे काबर रतिन? बड़े कका जानथे, पुरोहिती-जजमानी के, मठ-मंदिर के चढ़ावा मन कहां ले चढ़थें। गरीब-गुरबा मन ल चढ़ोतरी के चाउर खवा के कोई भारी परमारथ नइ कर डारथे। असल म एक चाउर हर बड़े कका पंचन ल पचे कस नइ करै। दार-भात के आयोजन ल ओकर इलाजे समझे जाए, जादा ठीक रइही। चंदा बरारे रतिन त आदमी का देतिन नहीं। शिवेच परसाद कहत रहिस। सउंख कहि ले, मन के मौजू, या फेर उपचार, चढ़ोतरीच के चाउर म दार-भात खवाए के मन होइस। समान ल कांवर मं बोह के ले गइस लहाराम।
देशबंधु से साभार